Friday, November 21, 2014

Teachings of Bammera Pothana

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Tuesday, October 28, 2014

Go on a memorable journey to Kaziranga with wildlife photographer Rajesh Bedi

Take the photo trail to Kaziranga


 
Go on a memorable journey to Kaziranga with wildlife photographer Rajesh Bedi
For a nature lover there is no greater thrill than being at perilously close quarters with wildlife. And what could be more exciting than capturing that magical moment on camera? If wildlife photography is your passion, join the Kaziranga Wildlife Photography Trail starting on November 30. This exciting six-day journey will take you to a world heritage site that is home to two-thirds of the world’s great onehorned rhinoceros.
The experience architect on this trail will be Rajesh Bedi, one of India’s bestknow wildlife photographers with over three decades of award-winning work behind him. “I have occasionally risked my life in order to obtain exceptional images,” says Bedi, who has a fund of hair-raising stories about his photographic forays into dense forests.
This will be an opportunity for applicants to lend polish to their amateur nature photography skills and the guidance comes from the best in the field.
Bedi will lead 20 participants of this trail to three of the most rewarding zones in the sanctuary for a photographer: the central zone known for the big five of Kaziranga -the rhino, Asian elephant, tiger, Asiatic wild buffalo and swamp deer; the western zone for elephant safaris and the eastern zone for water bodies.
Photography enthusiasts will get to see two more sanctuaries during this trip -Pobitora, famous for its onehorned rhino, and Gibbon sanctuary with its hoolock gibbons, the only ape species in India.


PASSION PHOTOGRAPHY COMMUNITY
For those who miss, here is another opportunity to further your passion for wildlife photography -we will set up a dedicated community on photography where you can share your views and work and explore what other enthusiasts are doing. The community will offer options for you to interact with various experts on the field, share your knowledge, participate in various contents and events around the year. You can read and know more about this on our website and Facebook page.







Monday, October 20, 2014

Read about the Dhanteras day to get the special grace of Goddess Lakshmi.

Read about the Dhanteras day which comes before Diwali to achieve any measure 
of prosperity. On this special day you can get the 
special grace of Goddess Lakshmi.
दीपावली के दिन माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए सभी भारतीय कई प्रकार के विशेष उपायों का सहारा लेते हैं ताकि उनके घर में धन-धान्य की कोई कमी न हो।
इस दिन हर किसी के घर में विशेष प्रकार की पूजा का आयोजन किया जाता है। हर साल दीपावली पूजन का समय निर्धारित किया जाता है।
इसी समय के दौरान सभी लोग अपने घरों व व्यावसायिक स्थलों पर लक्ष्मी जी की पूजा कर घर में सुख, शांति और व्यापार में वृद्धि की कामना करते हैं।
लेकिन दीपावली से ठीक पहले आने वाले धनतेरस के दिन समृद्धि प्राप्ति के लिए किया गया कोई भी उपाय ज्यादा फलदायी होता है।
ज्योतिष शास्त्र में कई ऐसे उपाय बताएं गए हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि इन्हें धनतेरस के दिन किसी भी शुभ समय में किया जाए तो घर में लक्ष्मी का निवास होता है।
धनतेरस के दिन किसी भी मंदिर में केले के दो पौधे लगाएं। इन पौधों की समय-समय पर देखभाल करते रहें।
इनके बगल में कोई सुगंधित फूल का पौधा लगाएं। केले का पौधा जैसे-जैसे बड़ा होगा, आपके आर्थिक लाभ की वृद्धि होगी।
धनतेरस पर यदि पूजा के समय किसी ऐसे स्थान की मिट्टी जहां मोर नाचा हो लाकर पूजा करें। इस मिट्टी को लाल कपड़े में बांधकर तिजोरी में रखने से घर में हमेशा लक्ष्मी की कृपा बनी रहेगी।
धनतेरस और दीपावली के दिन रसोई में जो भी भोजन बना हो, सबसे पहले उसमें से गाय के लिए कुछ भाग अलग कर दें। ऐसा करने से घर में स्थिर रूप से लक्ष्मी का निवास होगा।
धनतेरस के दिन किसी भी शुभ समय में किसी ऐसे पेड़ की टहनी तोड़ कर लाएं, जिस पर चमगादड़ रहते हों। इसे अपने बैठने की जगह के पास रखें, लाभ होगा।
धनतेरस के दिन लक्ष्मी पूजन के बाद लक्ष्मी या किसी भी देवी को लौंग अर्पित करें। यह काम दीपावली के दिनों में रोज करें। आर्थिक लाभ होता रहेगा।
धनतेरस पर सफेद पदार्थों जैसे चावल, कपड़े, आटा आदि का दान करने से आर्थिक लाभ का योग बनता है।
दीपावली के दिनों में और हो सके तो रोज ही शाम को सूर्यास्त के बाद घर में झाड़ू-पोंछा न करें। ऐसा करने से घर से लक्ष्मी चली जाती हैं।
धनतेरस पर किसी गरीब, दुखी, असहाय रोगी को आर्थिक सहायता दें। ऐसा करने से आपकी उन्नति होगी।
धनतेरस के दिन किसी किन्नर को धन दान करें और उसमें से कुछ रुपए वापस अनुरोध करके प्राप्त कर लें। इन रुपयों को सफेद कपड़े में लपेटकर कैश तिजोरी में रख लें, लाभ होगा।
लक्ष्मी जी व गणेश जी की चांदी की प्रतिमाओं को इस दिन घर लाना, घर- कार्यालय, व्यापारिक संस्थाओं में धन, सफलता व उन्नति को बढ़ाता है।
इस दिन भगवान धनवंतरि समुद्र से कलश लेकर प्रकट हुए थे, इसलिए इस दिन खास तौर से बर्तनों की खरीदारी की जाती है।
ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूखे धनिया के बीज खरीद कर घर में रखना भी परिवार की धन-संपदा में वृ्द्धि करता है।
दीपावली के दिन इन बीजों को बाग, खेत खलिहानों में लगाया जाता है। ये बीज व्यक्ति की उन्नति व धन वृ्द्धि के प्रतीक होते हैं।
शुभ मुहूर्त में धनतेरस के दिन भगवन कुबेर की विशेष पूजा करें। भगवान कुबेर की पूजा से धन और वैभव की प्राप्ति होती है।

Wednesday, October 15, 2014

Benefits of Hath Yoga

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चमत्कृत कर देगी प्राचीन काल की यह विधा, जानना चाहेंगे आप?
 
हठ योग, योग साधना की एक प्राचीन पद्धति है। संसार भर में ये योग क्रिया विभिन्न प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक लाभों के कारण विख्यात है। आज हम जानेंगे कि हठ योग के क्या- क्या लाभ हैं।
हठ योग हमारे शरीर के प्रतिरक्षी तन्त्र को सशक्त करता है। विभिन्न प्रकार की व्याधियों से बचने के लिये हठ योग की सामान्य क्रियायें भी लाभप्रद होती हैं।
संसार भर में बाल से लेकर वृद्ध तक अपने भार के कारण विभिन्न प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त रहते हैं। मोटापा अनेक प्रकार की व्याधियों की जड़ माना जाता है। हठ योग से भार तथा मोटापा घटाने में सहायता प्राप्त होती है।
हठ योग के आसनों से हमारे मेरुदण्ड में दृढ़ता आती है तथा हमारे अंग-विन्यास में भी सुधार आता है। आधुनिक समय में कंप्यूटर पर काम करते रहने के कारण अधिकांश व्यक्ति पीठ की पीड़ा से दुखी रहते हैं। इससे छुटकारा पाने के लिये हठ योग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
पाचन क्रिया में समस्या रहे तो भोजन ‘खाया या ना खाया’ एक ही समान माना जाता है। परन्तु हठ योग के विभिन्न आसनों से पाचन क्रिया में सुधार आता है तथा मल त्याग करने में भी सुधार दिखायी देता है।
हठ योग के प्रयोग से रुधिर प्रवाह में उन्नति होती है, जो शरीर के भिन्न भागों में ऑक्सीज़न, पोषक तत्व तथा अन्तः स्रावों के लिये अति आवश्यक माना जाता है। इससे आपका शरीर हृष्ट-पुष्ट रहता है।
मानसिक एकाग्रता के लिये किसी भी प्रकार की योग क्रिया का प्रयोग लाभप्रद माना जाता है। हठ योग मानसिक एकाग्रता बढ़ाने के लिये उपयुक्त साधन है।
शारीरिक आभास में वृद्धि के लिये हठ योग का प्रयोग मान्य तथा लाभप्रद माना गया है।पेशियों के निष्पीड़न से मुक्ति मिलने के कारण मानसिक चैन प्राप्त करने के लिये भी हठ योग क्रियायों का प्रयोग किया जाता है।
तनाव से जुड़े संकेतों को घटाने के लिये भी विभिन्न प्रकार के हठ योगासनों का प्रयोग लाभप्रद सिद्ध होता है। श्वास रोग तथा मधुमेह रोगों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये भी हठ योगासनों का प्रयोग किया जाता है।
कुछ नवीन वैज्ञानिक अन्वेषणों तथा तथ्य संग्रह में विभिन्न प्रकार की व्याधियों का उपचार हठ योग से संभव माना जाता है। इसमें श्वास रोग, चिरकालिक थकान, मधुमेह, गठिया, एचआईवी, तथा मोटापे जैसी व्याधियां सम्मिलित हैं।

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आप सब की ओर से दो प्रश्न आये हैं।  
पहला प्रश्न है कि मूर्तिपूजा उचित है या अनुचित?
दूसरा प्रश्न है, योग के नाम पर तरह-तरह के योग, जैसे- हठयोग, राजयोग, लययोग, कुण्डलिनी योग, षट्चक्र और आसनों के बीच योग का वास्तविक स्वरूप क्या है?

जहाँ तक मूर्तिपूजा का प्रश्न है आश्रमीय साहित्य ‘यथार्थ गीता’, ‘जीवनादर्श एवं आत्मानुभूति’ और ‘शंका समाधान’ इत्यादि में भी हमने इस प्रश्न को लिया है। ये मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, स्तूप इत्यादि जो भी पिण्ड तैयार किये जाते हैं आध्यात्मिकता की प्राथमिक पाठशालाएँ हैं। इनके द्वारा हम पूर्वजों के पदचिन्हों पर चल सकते हैं, धर्म की दिशा प्राप्त कर सकते हैं। एक सीमा तक ही इनका उपयोग है। वर्णमाला ज्ञान के लिए प्राथमिक कक्षाएँ आवश्यक हैं; किन्तु कोई आजीवन इन कक्षाओं में रहना चाहे तो वह पढ़ता ही क्या है? ऐसे ही कोई आजीवन मन्दिर तक ही जाना चाहे तो यह उसकी भावुकता ही कही जायेगी। मन्दिर और मूर्तियाँ श्रद्धास्पद स्मारक हैं, जिनमें हमारे पूर्वजों द्वारा परमात्मा की शोध की गौरवपूर्ण स्मृति सँजोयी गई है। यदि वहाँ यह बताया जाता है कि उन महान् विभूति ने किस प्रकार साधना की? कैसे उस परमतत्त्व को प्राप्त किया? उनका सन्देश क्या है?, तब तो मन्दिर और मूर्तियाँ सार्थक हैं। केवल चरणामृत बाँटनेवाला मन्दिर अधूरा है, श्रद्धा का दुरुपयोग है।

आपका दूसरा प्रश्न, जो योग के सम्बन्ध में है, विस्तृत विचार की अपेक्षा रखता है। आज योग के नाम पर देश-विदेश में हजारों प्रशिक्षण केन्द्र चल रहे हैं जिनमें गृहस्थ, विरक्त सब के सब योग ही सिखा रहे हैं। सबकी संस्थाएँ फल-फूल रही हैं। छोटे-छोटे बच्चे तक योग में पारंगत हैं। हमारे आश्रम में कुछ बच्चे आते थे वे सब योग सीखकर स्वर्णपदक पा गये (वे जिमिनास्टर थे); किन्तु गीता-जैसे योगशास्त्र में इसे योग नहीं कहा गया। गीता में है-

तं विद्याद्दुःख संयोग वियोगं योग सव्म्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽ निर्विण्ण चेतसा।। (6/23)

अर्थात् संसार के संयोग-वियोग से रहित जो आत्यन्तिक सुख है, जिसे परमतत्त्व परमात्मा कहते हैं उसके मिलन का नाम योग है। वह योग न उकताए हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना कत्र्तव्य है। धैर्यपूर्वक सतत् अभ्यास से लगनेवाला ही उसे प्राप्त करता है। परमतत्त्व परमात्मा और हमारे बीच में मन की तरंगें हैं, चित्त की वृत्तियाँ हैं। इन वृत्तियों का निरोध कैसे हो?- इतनी ही तो साधना है, जिसे पूर्व मनीषियों ने देश, काल और पात्र-भेद के अनुसार अपनी-अपनी भाषा-शैली में व्यक्त किया है। लौकिक सुख तथा पारलौकिक आनन्द की प्राप्ति के एकमात्र स्त्रोत परमात्मा की शोध का जो संकलन वेदों में है, वही उपनिषदों में उद्गीथ विद्या, संवर्ग विद्या, मधुविद्या, आत्मविद्या, दहर विद्या, भूमाविद्या, मन्थविद्या, न्यासविद्या इत्यादि नामों से अभिहित किया गया। इसी को महर्षि पतंजलि के ‘योगदर्शन’ में योग की संज्ञा दी गई।

योग है क्या? महर्षि कहते हैं, अथ योगानुशासनम्।- योग एक अनुशासन है। हम किसे अनुशासित करें- परिवार को, देश को, पास-पड़ोस को? सूत्रकार कहते हैं- नहीं, योगश्चित्त वृत्ति निरोधः।- चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। किसी ने परिश्रम कर निरोध कर लिया तो उससे लाभ? तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽ वस्थानम्।– उस समय द्रष्टा यह आत्मा अपने सहज स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है। क्या पहले वह स्थित नहीं था? महर्षि के अनुसार, वृत्ति सारूप्य मितरत्र।- दूसरे समय द्रष्टा का वैसा ही स्वरूप है, जैसी उसकी वृत्तियाँ सात्त्विक, राजसी अथवा तामस हैं, क्लिष्ट, अक्लिष्ट इत्यादि। इन वृत्तियों का निरोध कैसे हो? अभ्यास वैराग्या भ्यां तन्निरोधः।- चित्त को लगाने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है उसका नाम अभ्यास है। देखी-सुनी सम्पूर्ण वस्तुओं में राग का त्याग वैराग्य है। अभ्यास करें तो किसका करें? क्लेश कर्म विपाकाशयैर परामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।- क्लेश, कर्म, कर्मों के संग्रह और परिणाम भोग से जो अतीत है वह पुरुष-विशेष ईश्वर है। वह काल से भी परे है, गुरुओं का भी गुरु है। उसका वाचक नाम ‘ओम्’ है। तज्ज पस्तदर्थ भावनम्।- उस ईश्वर के नाम प्रणव का जप करो, उसके अर्थस्वरूप उस ईश्वर के स्वरूप का ध्यान धरो, अभ्यास इतने में ही करना है। इस अभ्यास के प्रभाव से अन्तराय (विघ्न) शान्त हो जायेंगे, क्लेशों का अन्त हो जायेगा और द्रष्टा स्वरूप में स्थिति तक की दूरी तय कर लेगा।

इन समस्त प्रकरण में योग के लिए वृत्तियों का संघर्ष झेलना है। यह शरीर का क्रिया-कलाप, इसकी विभिन्न मुद्राएँ योग कब से और कैसे हो गयी? कोई दिन-रात लगातार चैबीसों घण्टे योग के नाम पर प्रचलित इन आसनों को कर भी तो नहीं सकता जबकि गीता के अनुसार योग सतत् चलनेवाली प्रक्रिया है और महर्षि पतंजलि के अनुसार, स तु दीर्घकाल नैरन्त्तर्य सत्काराऽ ऽसेवितो दृढभूमिः।– योग का यह अभ्यास बहुत काल तक लगातार श्रद्धापूर्वक करते रहने से दृढ़ अवस्थावाला होता है। अभ्यास में करना क्या है? क्या कोई आसन? नहीं, उसमें करना है ओम् का जप और ईश्वर का ध्यान। योग का परिणाम क्या है? द्रष्टा की स्वरूप में स्थिति। इसके अतिरिक्त लक्षणोंवाला, भिन्न परिणामवाला साधन योग कदापि नहीं है।

अब हमें यह देखना है कि योग में इन मानसिक क्रियाओं के स्थान पर शारीरिक क्रियाओं का प्रचलन कैसे हो गया? योग के नाम पर विभिन्न आसन कहाँ से आ गये? महात्मा लोग घनघोर जंगल के शान्त एकान्त में कन्द-मूल, फल सेवन कर भजन करते थे, जहाँ अनेक प्रकार की बीमारियों का प्रकोप रहता था- ‘लागत अति पहार कर पानी। विपिन विपति नहिं जाई बखानी।।’ पहाड़ी जल प्रायः स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होता। जंगल के जीवन में इतनी असुविधाएँ हैं कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। सर्प, बिच्छू, शेर, भालू, गैंडा, हाथी और तरह-तरह के कीटाणुओं के मध्य निवास की समस्याओं के अतिरिक्त बड़े-बड़े मच्छरों के दंश, जिनसे साधकों को चार-छः महीने में ही मलेरिया, जूड़ी-ताप, लीवर का बढ़ना, तिल्ली, उदर-शूल इत्यादि जंगल के रोग आक्रान्त कर लेते थे। महीने दो-तीन महीने से बुखार पीछा ही नहीं छोड़ रहा है, अब तक जो चिन्तन-स्मरण-अभ्यास किया, प्रेमपूरित हृदय से जो लव इष्ट-चरणों में लगी थी, उधर से हटकर शरीर के चिन्तन में लग गई कि यह स्वस्थ कैसे हो? चिन्तन-क्रम टूट गया। येन-केन प्रकारेण स्वास्थ्य-लाभ हुआ भी तो चार-छः महीने के अन्तराल से पुनः कोई न कोई बीमारी आ गई। जीवन ही कितना है मनुष्य के पास।

प्राचीनकाल में आज की तरह चिकित्सा की सुविधायें न थीं और जंगल में तो उनका और भी अभाव था इसलिए महात्माओं ने भजन-पथ के भयंकर विघ्न इन बीमारियों के निवारणार्थ अपने भजन में से कुछ समय निकालकर शरीर-शोधन की प्रक्रिया में लगाना आरम्भ किया, जिससे न मल अवरुद्ध हो और न उससे उत्पन्न होनेवाले अवान्तर विघ्न शरीर को क्षुभित कर सकें। ‘योग करत रोग बढ़त। वैराग योग कठिन ऊधो, हम न करब।’ गोपियाँ कहती हैं कि उद्धव जी! वैराग्य और योग तो बड़ा कठिन है। योग करने से रोग बढ़ता है। वास्तव में ऐसा ही है, क्योंकि भजन का उतार-चढ़ाव श्वास पर निर्भर है। एक ही नाम को बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा इन चार श्रेणियों से जपा जाता है। बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाय। नाम-जप सस्वर इस प्रकार करते हैं कि सुनायी दे। मध्यमा का आशय है अस्फुट स्वर। ऐसा उच्चारण कि समीप में कोई बैठा हो तो उसे न सुनायी न पड़े, केवल जपने वाला सुने, समझे। इससे उन्नत अवस्था पश्यन्ती में दृष्टि श्वास पर केन्द्रित की जाती है कि श्वास कब अन्दर आई, कितने समय तक रुकी, कब बाहर गयी? मन को द्रष्टा रूप में खड़ा कर देते हैं। जब मन निरीक्षण करने लगे तो चिन्तन से उस नाम को जपा जाता है। पश्यन्ती अवस्था की परिपक्व अवस्था विपश्यना में, श्वास विशेष रूप से निरीक्षण की क्षमता में नाम जागृत हो जाता है, उसे करना नहीं पड़ता। एक बार सुरत लगा भर दें, डोर लग जायेगी। श्वास देखने की क्षमता आते ही परा में प्रवेश मिल जाता है। यह तत्त्व में प्रवेश दिला देनेवाली वाणी है इसलिए परा कहलाती है। उस समय श्वास की गति शिथिल हो जाती है। एक मिनट में यदि आप चार बार श्वास लेते थे तो इस परा की अवस्था में एक ही बार ले सकेंगे। श्वास ही तो रक्त का शोधन करती है। यदि यही शिथिल हो गई तो रक्त-संचार मन्द पड़ जाता है। नस-नाडि़यों, मांसपेशियों में रक्त-संचार शिथिल होते ही शरीर को तरह-तरह की बीमारियाँ घेर लेती हैं। साधना का क्रम न टूटे, इसके लिए महापुरुषों ने नेति, धौति, आसन इत्यादि शारीरिक क्रियाओं का आविष्कार किया।

नेति अर्थात् नाक में सूत की रस्सी डालकर मुख से निकालना, धौति अर्थात् पाँच सेन्टीमीटर चैड़े और पाँच मीटर लम्बे मलमल के वस्त्र को जल से साथ निगलना और निकालना, वस्ति अर्थात् गुदा से अश्विनी मुद्रा द्वारा जल खींचकर एनिमा की तरह बड़ी आँत की सफाई करना, नौलि अर्थात् खड़े होकर झुकते हुए दोनों हाथ घुटने पर रख नौलि (छोटी आंत) को नाभि के चारों ओर घुमाना, त्राटक अर्थात् किसी वस्तु को एकटक देखते रहना, कपालभाति अर्थात् लुहार की भाथी की तरह शीघ्रतापूर्वक श्वास लेना और छोड़ना- इन सबके अनेक अवान्तर भेद, जैसे- कर्ण धौति (कान की सफाई), दन्तधौति (दाँतों की सफाई), शंख प्रक्षालन (मुख से जल पीकर गुदा मार्ग से निकालना) इत्यादि केवल शारीरिक उपचार थे, जिनसे भजन में व्यवधान न आये। मूल साधन से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था। ‘तन बिन भजन वेद नहिं वरना’- भजन के लिए तन को निरोग रखने का नुस्खा इन क्रियाओं में था जिसे कालान्तर में हठयोग कहा जाने लगा।

वस्तुतः हठयोग नाम की अलग से कोई साधना नहीं है। हम जब गुरु महाराज की शरण में आये, महीने-दो महीने में ही गुरुदेव हृदय से प्रेरणा देने लगे कि यहाँ बैठो, अब श्वास से चिन्तन करो, अब भजन ठीक चल रहा है, अब ठीक नहीं है, अब बाधा आनेवाली है, यह बाधा का निवारण हो गया- इस प्रकार धड़ाधड़ अनुभव में मिलने लगा। गुरु महाराज ने अनुभव की जागृति प्रदान की, आत्मा से इष्टदेव रथी हो गये। नाम जपने की विधि, श्वास-प्रश्वास का भजन, नाम-रूप-लीला और ब्रह्मविद्या इत्यादि सभी साधन गुरुदेव ने विधिवत् बताया किन्तु नेति, धौति, नौलि, वस्ति, योगासन इत्यादि का नाम भी नहीं लिया।

गुरु महाराज सेवा पर पूरा जोर देते थे। यह करो वह करो- सेवा में लगाये रखते थे जिससे आसनों की कमी पूरी हो जाय। वे कहते थे- जब तक जगो योगाचार में रहो। मन को नाम, रूप, लीला और धाम इनमें से कहीं न कहीं लगाये रखो। यदि आप मन को भजन से छुट्टी देंगे तो यह माया में जायेगा। मन एक ऐसा यन्त्र है जो कभी शान्त रहता ही नहीं, सदैव कुछ न कुछ करता ही रहता है, इसलिए सतत् चिन्तन में लगे रहो। सेवा करते समय भी, तिनका उठाते समय भी सुरत लगी रहनी चाहिए। प्रणपूर्वक लगे रहो। इसी का नाम हठ है। हठ के नाम पर अलग से कोई क्रिया नहीं है। पंचाग्नि तापना, चैरासी धूनी तापना, जल शयन, कण्टक शयन अरण्य निवास, एक पैर से अथवा एक हाथ ऊपर कर खड़े रहना, वृक्ष की डाल से उल्टा लटककर नीचे से धुआँ लेना, दिगम्बर नागा या मौनी बनना, निराहार, जलाहार, फलाहार, दूर्वाहार, दुग्धाहार या कंदमूलाहार पर निर्वाह करना हठ का ही प्रयास है; किन्तु वास्तविक हठ श्रद्धा का एक इष्ट में स्थिरीकरण है।

पार्वती जी से सप्तर्षियों ने प्रस्ताव किया कि आपका विवाह ऐश्वर्यसम्पन्न विष्णु से करा देते हैं, इन दिगम्बर शिव में क्या रखा है? उन्होंने उत्तर दिया, ‘हठ न छूट छूटै बरु देहा’- हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाय। जन्म कोटि लागि रगर हमारी। बरउँ सम्भु न त रहउँ कुँआरी।।- करोड़ों जन्म तक हमारी यही टेक है कि शंभु का वरण करूँगी अन्यथा कुमारी रहूँगी। ‘तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू।।’- मैं नारद का उपदेश नहीं त्याग सकती। भगवान् शिव भी स्वयं आकर सौ बार कहें तब भी मैं नहीं छोड़ूँगी। ‘गुरु के वचन प्रतीति न जेही। सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही।।’ गुरु के वचनों पर जिसे विश्वास नहीं है उसे स्वप्न में भी न सुख है, न सिद्धि ही है। यह था जगदम्बा पार्वती का हठ, उनका प्रण। भगवान् बुद्ध का भी हठ इसी प्रकार का था जिसका उल्लेख ‘ललित बिस्तर’ के इस श्लोक में है, ‘इहासने शुष्यतु मे शरीरम्, त्वगस्थि मांसं प्रलयं च यातु। अप्राप्य बोधि बहुकल्प दुर्लभाम्, नैवासनात् कायमतश्च लिष्यते।’ अर्थात् भले ही मेरा शरीर सूख जाय, हड्डियाँ मांस छोड़ दें, प्रलय ही क्यों न आ जाय, जब तक दुर्लभ बोधि (आत्मज्ञान) कैवल्य को प्राप्त न कर लूँगा, इस आसन से नहीं उठूँगा। हठ के नाम पर कोई और क्रिया होती हो ऐसी बात नहीं है। जिस प्रभु के प्रति आप लग गये हैं- करोड़ों उपदेशक आयें- आप अपने हठ से, प्रण से, टेक से हवा भर भी विचलित न हों, इसका नाम हठ है। योग-साधन में हठ आवश्यक है। पूज्य महाराज जी कहते थे, ‘हो! हठ ही हनुमान है। साधक को हनुमान की तरह होना चाहिए, माता पार्वती की तरह हठी होना चाहिए। यही है हठ, न कि नेति और धौति की क्रियायें! ‘ह’ और ‘ठ’ अक्षरों में सूर्य और चन्द्र अथवा पिंगला और इड़ा नाडि़यों का समीकरण बैठाना परवर्ती अन्वेषियों की देन है।

तंत्र-ग्रन्थों में शरीर तथा मन के सम्मार्जन के लिए उक्त षट्कर्मों के अतिरिक्त अनेक बन्ध, मुद्रा और प्राणायाम की चर्चा है। मूलबन्ध में श्वास द्वारा गुदा का संकोचन करते हैं। पेट को पीठ से मिलाना उड्डीयान बन्ध है। ढोढ़ी को हृदय से सटाने का प्रयास जालन्धर बन्ध है। जिह्वा उलटकर तालु कुहर में लगाना खेचरी मुद्रा है जिसमें घर्षण, छेदन, चालन और दोहन द्वारा लम्बिका योग अर्थात् जीभ को लम्बा किया जाता है। जननेन्द्रिय को पुनः-पुनः सिकोड़ना अश्विनी मुद्रा है। नितम्ब को जमीन पर बार-बार गिराना शक्तिचालिनी मुद्रा, नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि शाम्भवी मुद्रा कही जाती है। जननेन्द्रिय द्वारा जल इत्यादि ऊपर खींचना बज्रोली मुद्रा है। दोनों अंगूठे से दोनों कान, तर्जनियों से दोनों नेत्र, मध्यमा से नासिका छिद्र, अनामिका और कनिष्ठकाओं से होंठ और अधर बन्द करना योनि मुद्रा या षण्मुखी मुद्रा है। पूरक, कुम्भक और रेचक में विभाजित प्राणायाम प्रणवसहित सगर्भ प्रणवरहित निर्गर्भ, सूर्यभेदी, उज्जाई, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्धा और केवली (प्लाविनी) के रूप में आठ प्रकार का होता है। वायु को घड़े की तरह पेट में भरना तड़ागी मुद्रा है। भिन्न-भिन्न रोगों में इन क्रियाओं का भी प्रयोग करते थे किन्तु यह उपचार क्लिष्ट था, इसमें खतरे बहुत थे। अच्छे से अच्छे जानकार भी थोड़ी-सी असावधानी से प्राणों से हाथ धो बैठते थे इसलिए आसनों का आविष्कार हुआ। चैरासी लाख जीवों का अनुकरण कर इतने ही आसन बताये गये जिनमें चैरासी मुख्य हैं- जैसे- सिद्धासन, पद्मासन, शीर्षासन, मयूरासन, सर्वांगासन इत्यादि। इनमें से कुछ आसनों को भी कर लेने से पसीना होने लगेगा, रक्त-संचार स्वाभाविक होने लगेगा, मांस-पेशियों पर दबाव पड़ने लगेगा, आप नीरोग रहेंगे। इस प्रकार आसन के रूप में प्रचलित यह व्यायाम योग का सहयोगी है न कि योग! कुछ लोग योग के नाम पर केवल आसन, नेति, धौति जैसी शारीरिक क्रियायें करते हैं- यह योग नहीं है। योग तो संसार के संयोग-वियोग से रहित है। आत्यन्तिक सुख, काल से अतीत, कैवल्य पद के मिलन का नाम है योग। शारीरिक क्रियायें विकारों के निवारण की विधि मात्र हैं, सम्पूर्ण योग कदापि नहीं। सम्पूर्ण योग के लिए आप श्रीमदभ्गवद्गीता की टीका ‘यथार्थ गीता’ (Yatharth Geeta) की तीन-चार आवृत्ति भली प्रकार करें।

साधनावस्था में निराधार विचरण के क्रम में पूज्य गुरु महाराज जी एक बार प्रयाग पधारे। प्रयाग बाँध पर कुछ हठयोगी निवास करते थे। आपको भजन में बैठा देखकर एक नवयुवक साधक ने प्रश्न किया कि आप रात्रि दो बजे से ही ध्यान में लगे हैं। जब भीतर मल भरा है तो ध्यान कैसे होगा। ध्यान से पूर्व नेति, धौति इत्यादि क्रियायें आवश्यक हैं परन्तु आप इन क्रियाओं के बिना ही ध्यान में रत हैं? महाराज जी ने हँसते हुए उत्तर दिया कि मल तो मन में होता है, स्थूल शरीर की आँतों को साफ करने से क्या होगा? जन्म-जन्मान्तर के दूषित संस्कार ही हमारे लिए मल हैं। जिसके द्वारा मन का मैल साफ हो जाय, वही योग-क्रिया है। यह साधन अनुभवी महापुरुषों द्वारा जागृत हो जाया करता है, जो जन्म-जन्मान्तरों के मलों को मिटाकर इष्ट में नियुक्त कर देता है। इस मानसिक चिन्तन का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। गीता योगशास्त्र है किन्तु उसका एक भी सूत्र नेति, धौति या वस्ति से सम्बन्धित नहीं है। रामचरित मानस भी उसी इष्ट से योग कराता है, किन्तु उसमें भी इन क्रियाओं का वर्णन नहीं मिलता। महर्षि पतंजलि और कबीर इत्यादि ने भी कहीं इसके लिए स्थान नहीं दिया। नेति, धौति इत्यादि शारीरिक उपचार हैं जिनसे कठिन से कठिन शारीरिक विकारों का शमन हो सकता है; किन्तु इससे आप योग की पराकाष्ठा प्रभु को नहीं पा सकते। योग में पायी जानेवाली प्रक्रिया एक ही है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽ व्यवसायिनाम्।। (2/41)

अर्जुन! इस कल्याण-मार्ग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है। अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओं में बँटी रहती है इसलिए वे अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं। इस नियत विधि को गीता में यज्ञचक्र कहा गया। परवर्ती सूत्रकारों ने इसे विविध नाम दिये। साधना के विभिन्न पक्षों पर बल देने के कारण एक ही योग ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग, हठयोग, मंत्रयोग, लययोग, सुरति-शब्दयोग, कुण्डलिनी योग, चक्रभेदन योग इत्यादि शाखाओं में बँटकर एक दूसरे से भिन्न प्रत्युत् विरोधी भी प्रतीत होने लगा। ज्ञानयोगियों ने बुद्धि पर, कर्मयोगियों ने सेवा पर, भक्तियोगियों ने समर्पण पर, राजयोगियों ने ध्यान पर, हठयोगियों ने शारीरिक शुद्धि पर, तंत्रयोगियों ने मंत्र पर, लययोगियों ने संस्कारों के विलय और परमात्मभाव में स्थिति पर बल दिया। यही सन्त कबीर का सुरति-शब्द योग है और यही गुरु गोरखनाथ जी का कुण्डलिनी योग है। योग इन सबका समुच्चय है, अन्तर्भाव है।

महापुरुषों के पीछे विकृतियों का सृजन हो जाया करता है, और महापुरुष के नाम पर चला भी देते हैं। यही कारण है कि मध्यकाल में साधना के नाम पर रहस्यमयी परिभाषाएँ, निरर्थक मंत्र और गुह्य साधनाएँ विकसित हो गईं जिनमें पंच मकार- मत्स्य, मांस, मदिरा, मुद्रा, मैथुन के अश्लील एवं व्यभिचारपरक अर्थ किये गये, जिसकी पुनप्र्रतिष्ठा सन्त गोरखनाथ जी जैसे महान् योगियों ने की।

योग-साधना को लेकर मत-मतान्तरों के सृजन का दूसरा कारण यह था कि मध्यकाल में संस्कृत भाषा जन-साधारण के लिए वर्जित कर दी गई। इसके अध्ययन- अध्यापन पर वर्ग-विशेष का विशेषाधिकार हो गया। यही कारण था कि सामाजिक कुलीनता से अलग-थलग अनेक महात्मा (वैदिक) ज्ञानराशि से वंचित रह गये। उनके अनुयायी अन्य सम्प्रदायों से अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए क्षेत्रीय बोलचाल की भाषा में उन्हीं के समानान्तर हजारों आगमिक ग्रन्थों की रचना कर बैठे। वास्तविकता न समझ पाने के कारण उन्होंने शरीर में चक्रों की परिकल्पना को कितना हास्यास्पद बना दिया है। प्रायः लोग शरीर में सात चक्रों का रूपक सुनते आये हैं, सौभाग्य लक्ष्मी उपनिषदों में नौ चक्र बताये गये हैं; किन्तु सन्त कबीर के अनुयायी इसके भी आगे कई अन्य चक्र गिनाकर कबीर साहब को उसके शिखर पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। सन्त पूर्णसिंह जी ने दो सहस्त्रार अर्थात् चैदह चक्रों तक गुरु गोरखनाथ जी का स्थान माना और अपने नानकदेव जी को इससे भी ऊपर कई चक्रों को पारकर महामहिमावती विहंगमपुर का निवासी बताया। अस्तु, साम्प्रदायिक स्पर्धा को यहीं विराम देकर हम पुनः आपके प्रश्न पर आते हैं।

वास्तव में शरीर के ये चक्र रूपक मात्र हैं। महापुरुषों ने इनको दृष्टान्त का माध्यम बनाकर अध्यात्म जगत् के अमूर्त रहस्यों को समझाने का प्रयास किया है। इन चक्रों के मूल में है शरीर और ब्रह्माण्ड में समरूपता दिखाने का प्रयास। जैसे, पृथ्वी के नीचे सात खंड- अतल, वितल, सुतल, महातल, रसातल, तलातल और पाताल कहे जाते हैं तथा पृथ्वी से ऊपर भुवः स्वः महः जनः तपः और सत्य लोकों की कल्पना है। उसी प्रकार शरीर में मेरुदण्ड से नीचे मूलाधार चक्र भू-लोक है। उसके नीचे सात स्थान पदतल, एड़ी, गिट्ट, पिण्डली, जानु, जंघा और तड़ागी हैं तथा पृथ्वी से ऊपर के लोकों के समकक्ष, शरीर में मूलाधार से ऊपर स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार नामक सात चक्र या स्थान हैं। किसी ने इसी को चक्रव्यूह के सात फाटक कहा तो किसी ने इसे भक्ति के सात सोपानों की संज्ञा दी-

एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना।। (मानस)

नैगमिक परम्परा के अनेक उपनिषदों, जैसे कृष्णयजुर्वेदीय अक्ष्युपनिषद् के द्वितीय खण्ड में इन्हीं को योग की सात भूमिकाएँ (असंवेदन, विचार, असंसर्गा, स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्या और विदेहमुक्ति) कहा गया। सामवेदीय महोपनिषद् के पंचम अध्याय में ज्ञान के आठ साधन विवेक, वैराग्य, षड्सम्पति (शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरामता और तितिक्षा), मुमुक्षा, श्रवण, मनन, निदिध्यासन, साक्षात्कार- ये साधन, ज्ञान की सात भूमिकाएँ- शुभेच्छा, सुविचारणा, तनुमानसी, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभावनी और तुर्यगा से चलकर परिपक्व होते हैं और परिणाम देते हैं। यही योग की सात भूमिकाओं या सात सोपान के रूप में अधिक प्रसिद्ध हैं।

आरम्भिक भूमिका है शुभेच्छा अर्थात् शुभ के प्रति इच्छा। जिसमें अशुभ है ही नहीं, जो निर्दोष है, नित्य और परमसत्य है उसकी प्राप्ति के लिए इच्छा। इस परमश्रेय शाश्वत की इच्छा शुभेच्छा योग की पहली सीढ़ी है, शुभारंभ है। केवल इच्छा करने मात्र से ही शुभ उस परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती। कहाँ ढूँढें उसे? उसके लिए सुविचार होने लगे, मंथन होने लगे, व्याकुलता आ जाय, वैराग्य के साथ सदाचरण की प्रवृत्ति सुविचारणा है। क्रमशः इन्द्रियों की विषयों से अनुरक्ति क्षीण होने लगती है, परमात्मा के प्रति आस्था सुदृढ़ होने लगती है तो तीसरी अवस्था तनुमानसा का उदय होता है। अब तक वह शरीर के कार्य-व्यापार को अपना समझता था, अब वह मन में ही तन वाला हो गया। मन जितना विकृत है उतना ही भूलों का कारण और जितना ही संयत है उतना स्वरूप की अभिवृद्धि, समझ में आते ही वह अन्तर्मुखी होने लगता है। एकान्त-देश के सेवन तथा मानसिक चिन्तन के फलस्वरूप योग की चैथी भूमिका सत्वापत्ति आती है- जो सत्य है, नित्य है, सनातन है उसकी जागृति। यहाँ आत्मा जागृत हो गई। चित्त शुद्ध स्वरूप में लगने लगता है। साधना और उन्नत होने पर असंसक्ति अर्थात् संसर्गहीनता स्वभाव में ढल जाती है। संसार के भले-बुरे वातावरण में असम्पृक्त या अलग रहने की क्षमता आ जाती है। कैसी भी परिस्थिति आ जाय, उससे अप्रभावित रहकर आगे बढ़ जाने की क्षमता असंसक्ति है। साधना और उन्नत होने पर छठी भूमिका ‘पदार्थाभावनी’। पदार्थ अर्थात् भोग-सामग्री। सांसारिक मनुष्य जागने से सोने तक रात-दिन पदार्थ ही तो ढूँढ़ रहा है। अपना भोग ही तो संग्रह कर रहा है; किन्तु इस अवस्था के योगी के लिए संसार में पदार्थ है ही नहीं। ‘सीयराम मय सब जग जानी। करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।’ एक ऐसा स्तर आ जाता है कि जहाँ प्रकृति थी वहाँ भगवान् का संचार दिखायी देने लग जाता है। जब विषय-वस्तु है ही नहीं तो मन जायेगा कहाँ?

‘सरग नरक अपबरग समाना। जहँ तहँ देख धरे धनु बाना।।’ इस स्तर के योगी में ऐसी दृष्टि का संचार हो जाता है कि न स्वर्ग स्वर्ग के रूप में रह जाता है जिसकी वह कामना करे और न नरक नरक के रूप में रह जाता है जिससे वह भयभीत हो; बल्कि ‘जहँ तहँ देख धरे धनु बाना’- वह सर्वत्र आराध्य देव के संचार को पाता है- यह है पदार्थ का अभाव।

साधना और भी सूक्ष्म होने पर योग की सातवीं भूमिका तुर्यगा आती है। महापुरुषों ने मन को तुरंग अर्थात् घोड़े की संज्ञा दी है क्योंकि यह अत्यन्त चपल है, गतिमान है, वेगवान् है। इस अवस्था का योगी मनरूपी तुरंग पर सवार हो जाता है। वह मन का गुलाम नहीं, संचालक हो जाता है। वह मन को जहाँ चाहे (चिन्तन में, श्वास में, रूप में, ब्रह्मविद्या में) कहीं भी रोक सकता है। यह मन की लगभग निरोधावस्था है; किन्तु मन अभी जीवित है। वह मन भी इतना शान्त हो जाय कि संकल्प-विकल्प की प्रक्रिया ही शान्त हो जाय, वहाँ मन मिट गया, क्योंकि संकल्प का ही दूसरा नाम मन है- ‘मन मिटा माया मिटी, हंसा बेपरवाह। जाका कछू न चाहिए सोई शहंशाह।।’ मन मिटते ही माया मिट गयी, अब (हंस) यह संत स्थिति का योगी बेपरवाह हो जाता है। मानस में हंस का लक्षण बताया गया- ‘जड़ चेतन गुन-दोष मय, विश्व कीन्ह करतार। सन्त हंस गुन गहहिं पय, परिहरि वारि विकार।।’ विधाता ने गुण-दोष मिलाकर संसार को रचा; किन्तु वे सन्त हंस होते हैं जो ईश्वरीय गुणरूपी दूध को तो ग्रहण कर लेते हैं परन्तु विकाररूपी वारि का त्याग कर देते हैं।

ऐसी स्थितिवाले सन्त हंस होते हैं। शेर को घास खिलायें तो क्या वह जीएगा? मछली को जल से बाहर रखें, तो क्या वह जीवित रह सकेगी? इसी प्रकार ईश्वरीय गुण हंस की खुराक है। कदाचित् दुर्गुण खाने लगा तो हंस कहाँ? वह तो कौवा हो गया। इस प्रकार ईश्वरीय गुणों का संधान करते-करते मन का निरोध और निरुद्ध मन भी जिस क्षण विलय पा गया, तत्क्षण वह परम चेतन का प्रतिबिम्ब प्राप्त कर लेता है। यही तुर्यातीत, विदेह, जीवन्मुक्त पुरुष है। जिसे पाना था पा लिया, जिस तत्त्व को ढूँढ़ता था विदित हो गया तो वह योगी निश्चिन्त हो जाता है। ‘जाका कछू न चाहिए’- यदि आगे कुछ होता तो चाह अवश्य होती। जब चाहने लायक भी आगे कुछ न बचा तो ‘सोई शहंशाह’- वह बादशाहों का भी बादशाह आत्मतृप्त हो जाता है।

आगम ग्रन्थों में योग के इन सप्त सोपानों की परिकल्पना शरीरस्थ सात चक्रों के रूप में की गई है, जैसे- शुभेच्छा योग का मूलाधार है। सुविचारणा स्वाधिष्ठान चक्र है। तनुमानसा मणिपूरक चक्र है। सत्वापत्ति-अनाहत, असंसक्ति-विशुद्ध, पदार्थभावनी- आज्ञा और तुर्यगा सहस्त्रार चक्र हैं। स्वामी ब्रह्मानन्द जी एक अच्छे भजनानन्दी महात्मा हुए। अपने एक पद में उन्होंने कुण्डलिनी योग का संक्षिप्त परिचय दिया है-

निरंजन पद को साधु कोई पाता है।।............
मूल द्वार से खींच पवन को, उलटा पंथ चलाता है।
नाभी पंकज दल में सोयी, नागिन जाइ जगाता है।
मेरुदण्ड की सीढ़ी बनाकर, शून्य शिखर चढ़ जाता है।
भँवर गुफा में जाय विराजै, सुरता सेज बिछाता है।
शशि मण्डल से अमृत टपके, पीकर प्यास बुझाता है।
सब कर्मों की धूनी जलाकर, तन में भस्म रमाता है।
ब्रह्मानन्द स्वरूप मगन हो, आप ही आप लखाता है।
निरंजन पद को साधु कोई पाता है।।...........

ब्रह्मानन्द जी ने परमपद को निष्कलुष निरंजन पद की संज्ञा दी है। ‘गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन’- गुरु महाराज जी का चरण-रज कोमल सुन्दर अंजन के समान है जिससे हृदय के विवेकरूपी नेत्र जागृत हो जाते हैं। इस अंजन का प्रभाव बताया- ‘सुकृत संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।’ पुण्यात्मा शंकर जी के शरीर में जो निर्मल ऐश्वर्य पाया जाता है वह गुरु महाराज के चरण-रज का ही प्रभाव है। एक शिव तो वह हैं तो पुण्य-पाप से परे हैं, दूसरे वह पुण्यात्मा शंकर जी, यह दो कैसे? वस्तुतः कः पूजनीय? शिवतत्त्वनिष्ठः। सृष्टि में पूजनीय कौन है? जो शिवतत्त्व में स्थित है वह महापुरुष। शिव ज्योतिर्मय परमात्मा की स्थिति का नाम है। उस तत्त्व की प्राप्तिवाला शिव है। उसे प्राप्त करने का अधिकारी भी कोई पुण्यात्मा ही होता है। आज का पुण्यात्मा सद्गुरु के चरण-रज का अंजन लेकर शिवस्वरूप को प्राप्त करता है, आज का पुण्यात्मा कल की स्थितिवाला होता है। निरंजन पद उस परमपद की प्राप्ति है जिसके लिए गुरु महाराज के चरण-रज का आश्रय लिया था, उसकी भी आवश्यकता न रह जाय, अंजन का परिणाम निकल आया हो, तत्त्व विदित हो गया हो, कैवल्य स्थिति मिल गयी हो। उस निर्दोष, निर्लेप अविनाशी परमपद को, निरंजन पद को कोई विरला ही सन्त प्राप्त कर पाता है।

उसे प्राप्त करने की विधि क्या है? ‘मूल द्वार से खींच पवन को, उलटा पंथ चलाता है।’ मूलद्वार में चार पंखुडि़यों का कमल अधोमुख है, साधना द्वारा उसे ऊध्र्वमुख किया जाता है। अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) यही चतुर्दल कमल हैं। ये अधोमुख हैं। प्रकृति की ओर, आवागमन की ओर हैं। इनको बाँधो, उधर जाने से रोको। यही मूलबन्ध है। यदि हम इनको न बाँध सके तो भजन नहीं होगा। क्योंकि जिन्हें भजन करना है वे अधोमुखी चिन्तन कर रहे हैं- मन संकल्प प्रकृति का कर रहा है, चित्त प्रकृति का चिन्तन कर रही है, बुद्धि प्रकृति का ही निर्णय ले रही है और इसमें कदाचित् सफलता मिली तो अहंकार भी प्रकृति का। यही तो छुड़ाना है। इसलिए मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार जो अधोमुखी प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख हैं, उन्हें उधर से बन्द करें, ऊध्र्वमुखी करें, इष्टोन्मुखी करें। संकल्प करनेवाली प्रशक्ति का नाम मन है, संकल्प का बार-बार चिन्तन करनेवाली शक्ति चित्त है। चिन्तन करते-करते किसी निश्चय पर पहुँचे तो निश्चय करनेवाली शक्ति बुद्धि, और निश्चय कर्म में परिणित हो गया तो ‘हमने किया’ यह अहंकार- यही चार दल वाला कमल है। यह प्रकृति की ओर उन्मुख है, पहले इसी को बाँधो। मन संकल्प करे तो हरि का, चिन्तन करे तो इष्ट का, निश्चय करे तो उसी का और अहंकार भी हो तो प्रभु का- ‘अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे।।’ यही है मूलबन्ध। इतना होते ही भजन की शुरुआत हो गयी। इसका नाम है मूलद्वार। यह योग-साधना का प्रथम द्वार है, आत्म-दर्शन की पहली खिड़की है। अन्तःकरण चतुष्टय में विषयरूपी बयार चलती ही रहती है उसको खींचो और उलटा पन्थ चला दो, विषयों की ओर से इष्ट की ओर उसकी धारा मोड़ दो। अभ्यास जहाँ उन्नत हुआ तो-

नाभि पंकज दल में सोयी, नागिन जाय जगाता है।

नाभि कहते हैं केन्द्र को। जहाँ भले-बुरे सारे संस्कारों का केन्द्रीयकरण है उस नाभि कमल के त्रिकोण में कुण्डली मारकर नागिन पड़ी हुई है। वास्तव में नागिन यह चित्तवृत्ति है जो सत्, रज और तम इन तीनों गुणों के अन्तराल में कुण्डली लगाकर बैठी है। विषयोन्मुख यह चित्तवृत्ति विषयरूपी विष उगलती ही रहती है, जीव को भयंकर यातनाएँ देती ही रहती है। नाभि में षड्दल कमल अधोमुखी षड्विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर के प्रतीक हैं। ऊध्र्वमुखी हो जाने पर यही षड्सम्पत्ति विवेक, वैराग्य, शम, दम, त्याग, तितिक्षा इत्यादि में परिणित हो जाते हैं न कि सचमुच का कमल खिलता है। चित्त को षड्विकारों से समेटकर षडैश्वर्य की ओर प्रवाहित करना नागिन को जगाना है।

‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन! जगत्रूपी रात्रि में सभी प्राणी निश्चेष्ट पड़े हुए है। रात-दिन जो दौड़- धूप करते हैं, मात्र स्वप्न देखते हैं, केवल संयमी पुरुष जाग जाता है। संयम तभी सम्भव है जब विवेक, वैराग्य, शम, दम, त्याग, तितिक्षा का संचार आ जाय। यही गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं- ‘मोहनिसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।’ मोहरूपी रात्रि में सब लोग निश्चेष्ट पड़े हुए हैं। जो रात-दिन दौड़ते हैं मात्र स्वप्न है। लोग चाहे स्वर्ग का ऐश्वर्य इकट्ठा कर लें लेकिन जहाँ आयु के दिन पूरे हुए तो ‘सोइ पुर पाटन बहुरि न देखा आइ।’- दुबारा लौटकर कुछ भी तो देख नहीं पाते। इससे जागता कौन है? ‘एहि जग जामिनि जागहिं योगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।’ परमार्थी अर्थात् परम धन परमात्मा के पिपासु, प्रपंच के वियोगी योगीजन इस जगत्रूपी रात्रि से जग जाते हैं। जब तक मोहरात्रि में सोया है नागिन डसती रहती है, जन्म पर जन्म प्रदान करती रहती है। इसका विष उतरता नहीं, जीव कराहता रहता है, पूरा मरता भी नहीं; क्योंकि उसमें ईश्वर का अंश जो ठहरा। सर्वथा नाश तो नहीं होता। हाँ, चैन भी नहीं मिलता। ‘जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा।।’- जीव को तब जागृत समझिये जब उसे समस्त विषयों से वैराग्य हो जाय। इस प्रकार सभी महापुरुष एक ही बात कह रहे हैं।

जहाँ साधना जागृत हुई, भजन का उतार-चढ़ाव श्वास से निर्धारित होने लगता है। प्रत्येक महापुरुष ने इस पर बल दिया है- ‘श्वास-श्वास पर राम कहु, वृथा श्वास मत खोय। ना जाने यहि श्वास का, आवन होय न होय।।’ भगवान् बुद्ध कहते हैं- श्वसन क्रिया पर, प्राण-अपान पर ध्यान दो। समय-समय पर भाषा-भेद से विभिन्न शब्दावलियों का प्रयोग महापुरुषों ने किया, समझाने के तरीके बदले; किन्तु विषय-वस्तु ज्यों-की-त्यों रही। वैसे तो श्वास से सम्पूर्ण शरीर ऊर्जस्वित है; किन्तु इसके माध्यम से मन को अन्तर्मुखी और एकाग्र करने के लिए नासिका से मेरुदण्ड के सहारे नाभिपर्यन्त श्वास के गमनागम के निरीक्षण का निर्देश महापुरुषों ने दिया है। मन को द्रष्टा बनाकर खड़ा कर दें, देखते रहें कि कब श्वास अन्दर गयी, कब लौटी। बाहर कितनी देर रुकी। पुनः कब अन्दर गयी। हमारी जानकारी के बिना एक भी श्वास न जाने पाये। इस श्वास पर सुरत को स्थिर करें और जब देखने की क्षमता आ जाय तो धीरे से चिन्तन का नाम इसमें ढाल दें। श्वास अन्दर गयी तो ओम्, बाहर आयी तो ओम्। ओम्-ओम् या राम-राम जो भी नाम आपको अनुकूल पड़े, जो उस प्रभु का परिचायक हो, ऐसे किसी एक नाम को श्वास में ढाल दें। नागिन जगकर श्वास के चिन्तन में प्रवाहित हो गयी। इसका नाम है मेरुदण्ड की सीढ़ी। किसी-किसी उपनिषद् में मेरुदण्ड को वीणादण्ड भी कहा गया है। श्वास-प्रश्वास की क्रिया द्वारा मेरुदण्ड की सीढ़ी बनाकर योगी उस शून्य शिखर पर आरूढ़ हो जाता है जहाँ भले-बुरे सभी संकल्प शान्त हो जाते हैं। केवल लक्ष्य मात्र रह जाय अन्य कुछ भी याद न रहे। जिसे चाहते हैं सजगतापूर्वक उसे देखते रहें, जड़ न हो जायँ। प्रेमपूरित हृदय से सुरत उस नाम पर हो, श्वास में सुरत की डोर लग जाय। पूज्य महाराज जी के शब्दों में, श्वास बाँस की तरह एकदम सीधी खड़ी हो जाय। ओम्-ओम् की एक धुन प्रवाहित हो जाय। हृदय से न किसी संकल्प का अभ्युदय होता हो और न ही बाह्य वायुमण्डल के संकल्प अन्दर प्रवेश कर पाते हों। जहाँ सुरत लगाया वहीं लगी है, चिन्तन चल रहा है- यही है शून्य शिखर। यही साधना का शिखर है। ऐसा योगी ‘भ्रमर गुफा में जाय विराजे, सुरता सेज बिछाता है।’ महापुरुषों ने परमात्मा को पुष्प तथा मन को भ्रमर की संज्ञा दी है। संत कबीर का एक प्रसिद्ध भजन जो महाराज जी को बहुत प्रिय था, इसी आशय का था कि ‘फुलवा के छुअत भँवर मरि जाई। का कही, केसे कही को पतिआई?’ अस्तु, परमात्मा एक पुष्प है। यह मनरूपी भ्रमर, जो उसकी प्राप्ति के लिए विकल था, जहाँ शून्य शिखर पर पहुँचा, शून्य की कन्दरा में शान्त, सम बैठ जाता है, रुक जाता है; किन्तु उसके लिए सुरत की शय्या आवश्यक है अन्यथा मन कभी नहीं रुकेगा। सुरत मन की दृष्टि का नाम है। आप यहाँ बैठे हैं। मान लें, छत्तीसों रंग बरस रहे हैं, आप मन-मस्तिष्क से सुध-बुध खोये बैठे हुए हैं, सहसा कोई कान में कह देता है कि बच्चा छत से गिर गया, बेहोश हालत में अस्पताल गया। तत्क्षण आपको यहाँ का कुछ भी दृश्य दिखायी नहीं देगा जबकि आँखें खुली है, कान खुले हैं फिर भी कुछ सुनायी नहीं देगा जबकि एक मिनट पहले आप इन्हीं दृश्यों में खोये हुए थे। बच्चे का एक-एक रोम दिखायी पड़ने लगेगा, दाँत कैसे? आँख कैसी? नाक कैसा? हाथ-पाँव कैसे? हथेलियाँ कैसी? रेखायें कितनी? आँखों की चितवन, बरौंनी सब कुछ स्पष्ट दिखायी देने लगेगा। वस्तु नहीं है फिर भी वस्तु का जो दृश्य प्रस्तुत कर दें, मन की उस दृष्टि का नाम सुरत है। इसी सुरत से भजन किया जाता है। योगी इस सुरत को श्वास पर लगाकर ही शयन करता है।

‘शशि मण्डल से अमृत टपके, पीकर प्यास बुझाता है।’ सुरत जब शून्य शिखर पर टिक ही गयी तो ‘मन ससि चित्त महान’- ईश्वरीय आभा उतर आती है। मृत्यु से परे जो अविनाशी अमृततत्त्व परमात्मा है उसका संचार मिलने लगता है। जहाँ उसे पाया तो इस जीवात्मा की प्यास सदा-सदा के लिए मिट जाती है। अन्य किसी धन-धान्य से, ऐश्वर्य समृद्धि से इसकी प्यास कभी नहीं मिटी है। इसकी प्यास तभी मिटती है जब यह जिसका विशुद्ध अंश है, जिसकी सन्तान है, अपने मूल उद्गम उस परम प्रभु को प्राप्त कर ले। अपने सहज स्वरूप को पाकर ही इसकी प्यास मिटती है। जिसे पाना था पा लिया, अब भजन करके ढूँढ़े किसे? कर्म करें तो किसलिए? अतः ‘सब कर्मों की धूनी जलाकर, तन में भस्म रमाता है।’ जो भजन-साधन, कर्म अनिवार्य था, प्राप्ति के पश्चात् उन कर्मों की धूनी जल गयी। उसके जलने से कोई क्षति नहीं हुई। उसके द्वारा जो विभूति है, ऐश्वर्य है- वह तन में आ गयी।

भगवान् श्रीकृष्ण गीता (अध्याय-4/16-19) में कहते हैं- अर्जुन! कर्म, अकर्म और विकर्म क्या है, बड़े-बड़े विवेकी लोग भी इससे भ्रमित हैं। इस कर्म को किये बिना न कोई पाया है और न कोई प्राप्त कर सकेगा। पूर्व में होनेवाले जितने भी महापुरुष हुए हैं इसी कर्म को करके परमनैष्कम्र्य की स्थिति को प्राप्त हुए हैं; किन्तु ‘यस्य सर्वे समारम्भाः काम संकल्प वर्जिताः।’- सम्पूर्णता से आरम्भ किया हुआ जिसका कर्म इतना सूक्ष्म हो गया कि कामना और संकल्प से ऊपर उठ गया, ‘ज्ञानाग्नि दग्धकर्माणं’- ज्ञानाग्नि में उसके कर्म सदा-सदा के लिए जल जाते हैं। ‘तमाहुः पण्डितं बुधाः’- ऐसी स्थितिवालों को ही बोधस्वरूप महापुरुषों ने पण्डित कहकर सम्बोधित किया है।

गीता, 5/19 में भगवान् कहते हैं, ‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थित मनः। निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः।।’- अर्जुन! उन पुरुषों के द्वारा जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया जिनका मन समत्व में स्थित हो गया, सुरत की सेज लगाकर शून्य में अचल स्थिर रुक गया। अब मन के अचल स्थिर ठहरने और संसार जीतने में क्या सम्बन्ध है? श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’- वह ब्रह्म निर्दोष और सम है, इधर उसका मन भी निर्दोष और सम की स्थिति वाला हो गया। ‘तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः’- इसलिए वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है।

अभी चैथे अध्याय के ‘ज्ञानाग्नि दग्धकर्माणम्’ की चर्चा हुई। ज्ञान का अर्थ कुछ सिद्धान्त रट लेना नहीं होता। ज्ञान का अर्थ है परमात्मा के दर्शन के साथ मिलनेवाली अनुभूति। गीता के अध्याय 10/3 में भगवान् कहते हैं, ‘यो माम जमनादिं च वेत्ति लोक महेश्वरम्। असम्मूढः स मत्र्येषु सर्व पापैः प्रमुच्यते।।’- जो अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के महान् मुझ ईश्वर को विदित कर लेता है वह पुरुष मरणधर्मा मनुष्यों में ज्ञानवान् है। जब ईश्वर विदित होता है उस समय जो अनुभूति मिलती है उसका नाम ज्ञान है। यदि क्रियात्मक चलकर किसी ने देखा नहीं तो सिद्धान्त पढ़ते रहें, कुछ भी मिलनेवाला नहीं है। हिमालय के नक्शे दिन-रात देखते रहें किन्तु पता तो तब चलेगा जब हिमालय पर पाँव रख देंगे। अस्तु, साधना की पूर्ति में मन के निरोध और विलयकाल में अविदित प्रभु के विदित होने के साथ मिलने वाली जानकारी ज्ञान है। गीता के अनुसार, हर महापुरुष के अनुसार, जिसे जानना था जान लिया, आगे कोई सत्ता नहीं तो ढूँढ़े किसे? ‘दग्धकर्माणम्’- कर्म सदा के लिए जल जाता है। आगे कोई भगवान् बचा ही नहीं तो जायेगा कहाँ, पूजेगा किसे? इसलिए भजन भी समाप्त। अब ‘भजन हमारा हरि करें, हम पाये विश्राम।’ यही है ‘सब कर्मों की धूनी जलाकर तन में भस्म रमाता है।’ अन्त में कहते हैं, ‘ब्रह्मानन्द स्वरूप मगन हो, आप ही आप लखाता है।’ वह साधक कण-कण में व्याप्त बृहद् उस ब्रह्म के आनन्द में निमग्न हो जाता है। ‘आप ही आप लखाता है।’ भगवान् जब अपनाते हैं तो अलग से जीव बनाकर नहीं बैठाते- ‘जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।’ सेवक सदा के लिए खो जाता है, स्वामी ही शेष बचा रहता है। ‘ईस्वर अंस जीव अविनासी’- यह जीव परमात्मा का विशुद्ध अंश है, अविनाशी है। साधना के सही दौर में पड़कर जहाँ मूल का स्पर्श किया, जो अंश था वह मिट गया और अंशी जो व्यापक था, शेष बच रहा। तो ‘सुरसरि मिले सो पावन कैसे। ईस अनीसहिं अंतर तैसे।।’ वह विलय पा गया, भगवान् की भगवत्ता को सर्वत्र अपने में ओत-प्रोत पाया। प्रभु जब अपनाते हैं तो अपना प्रभुत्व प्रदान कर देते हैं। जीव बनाकर, सेवक बनाकर नहीं रखते इसलिए ‘आप ही आप लखाता है।’ ऐसे निरंजन पद को कोई सन्त अवश्य प्राप्त करता है।

स्वामी ब्रह्मानन्द जी ने शरीरस्थ सातों चक्रों का उल्लेख अपने पद में नहीं किया किन्तु मेरुदण्ड की सीढ़ी में इन चक्रों का अन्तर्भाव समझा जा सकता है। मूलाधार की चर्चा उन्होंने की है। इससे क्रमोन्नत चक्र स्वाधिष्ठान है। स्व का अर्थ है आप स्वयं, अधिष्ठान का अर्थ निवास अर्थात् अपने स्वरूप के प्रति आस्था सुदृढ़ हो गयी। अब आप हटाये नहीं जा सकते। उस समय अधोमुखी षड्दल, षड्विकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर हैं। ऊध्र्वमुखी होने पर यही षडैश्वर्य विवेक, वैराग्य, शम, दम, त्याग और तितिक्षा में परिणित हो जाते हैं। यही कमल का खिलना है। साधन और भी उन्नत होने पर मणिपूरक चक्र आता है। यहाँ दस दल कमल है- पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, जो पहले अधोमुखी थीं इष्टोन्मुखी हो जाती हैं। ये संयत हुईं तहाँ मणिपूरक। महापुरुषों ने एक-एक श्वास को मणि की संज्ञा दी है। ‘तात भगति मनि उर बस जाके। दुख लवलेस न सपनेहु ताके।।’ यह भक्तिरूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, रंचमात्र भी दुःख उसके लिए सृष्टि में कहीं है ही नहीं। अष्टधा मूल प्रकृति अष्टसिद्धि के रूप में परिवर्तित हो गई। किसी-किसी ने यहाँ के कमल को आठ दलों वाला कहा है। सांसारिक कीचड़ से निर्लेप रहने के कारण योगी को कमलवत् कहा गया है।

साधना उत्तरोत्तर उन्नत होने पर अनाहत चक्र में प्रवेश मिलता है। यहाँ द्वादश कमल खिलता है। दस इन्द्रियाँ तो थीं ही, इसमें मन और बुद्धि, संकल्प और निश्चय की दो पंखुडि़याँ और मिल गयीं। द्वादश दल कमल खिल गया। वह भगवान् की विभूतियों को धारण करनेवाला हो जाता है। वह प्रकृति के थपेड़ों से आहत नहीं होता। वह अपने श्रेयपथ पर अग्रसर रहता है।

इस क्षमता के अनन्तर विशुद्ध चक्र षोडश पंखुडि़यों का है। यह स्थूल शरीर पाँच तत्त्व क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर का बना है। इसके अन्तराल में एक सूक्ष्म शरीर है जो मन का संसार है, वह सोलह तत्त्वों से बना है। दस इन्द्रिय, चतुष्टय अन्तःकरण, तैजस् और प्राज्ञ- इनमें ईश्वरीय आभा का प्रस्फुटन हो जाता है-

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पाछे लागे हरि फिरैं, कहत कबीर कबीर।।

सोलह तत्त्वों का यह सूक्ष्म शरीर जब विशुद्ध हो गया तहाँ आज्ञाचक्र। स्वामी और सेवक आमने-सामने हो जाते हैं। यही इस चक्र के दो दल हैं। साधक को केवल आज्ञापालन करना है। उन्हीं के निर्देशन में चलते-चलते जब साधना और उन्नत हुई तो अन्तिम चक्र सहस्त्रार चक्र आता है। सहस्त्र  का अर्थ अनन्त भी होता है। अनन्त प्रवृत्तियाँ जब इष्टोन्मुखी हो जायँ, भगवान् की आज्ञा में चलते-चलते एक भी प्रवृत्ति अधोमुखी नहीं रह गई, तहाँ ‘विश्वे अणुः स विष्णुः’- विश्व में जो अणुरूप से व्याप्त सत्ता है वह परमात्मा अपनी अनुभूति देने लगते हैं। अपनी विभूतियों से अवगत कराते हैं। साधन नहीं समझता तो काकभुसुण्डि की तरह, अर्जुन की तरह भगवान् उसे विराट् रूप का दर्शन कराते हैं। उसे जानकर साधक उसी भाव को प्राप्त हो गया। ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ जीव की संज्ञा समाप्त। परमात्मा उस तन को अपना निवास बना लेता है।

‘राम भगत हित नर तन धारी। सहि संकट किये साधु सुखारी।।’ भक्त के हित के लिए भगवान् उस नर का तन धारण कर लेते हैं। संकट सहन कर भी सन्तों को सुखी कर देते हैं।

सारांशतः हठ, कुण्डलिनी, विभिन्न चक्रों की परिकल्पना साधक को अन्तर्मुखी करने का प्रयास मात्र है। अधिकांश सन्तों ने चक्र-भेदन की अपेक्षा भक्ति को श्रेष्ठ माना है; क्योंकि भक्ति से ये सभी अवस्थाएँ अपने आप सहज ही पार हो जाती हैं। इसीलिए प्राचीन आर्षग्रन्थों में इनकी चर्चा तक नहीं है। मन के निरोध के साथ ही भगवान् की स्थिति- महापुरुषों ने समय-समय पर यही समझाया है। सम्पूर्णतः तथा क्रमबद्ध जानने के लिए आपका शास्त्र गीता है। भगवान् श्रीकृष्णोक्त गीता योगदर्शन है। इस गीता की परिभाषा ‘यथार्थ गीता’ (Yatharth Geeta) आश्रम से प्रकाशित हुई है। अवलोकन से योग-सम्बन्धी, श्रेय-सम्बन्धी कोई भ्रान्ति आपको कभी नहीं होगी।

।। ॐ श्री सद्गुरुदेव भगवान् की जय।।

Bajirav - Mastani Love Story in Hindi

बाजीराव - मस्तानी

अपनी मांग सही थी या प्रेमी का व्यवहार सही था प्रेम में यह  सोचने का अवकाश नहीं रहता है ।जहां  लेने से इंकार होता है और देने का आग्रह होता है वहीँ  असली प्रेम पनपता है । बाजीराव मस्तानी के प्रेम के मार्ग पर बेशक कांटे बिछे थे फिर भी उन प्रेमियों ने अपने रूहानी प्रेम का मूल्य अपने बलिदान से चुकाया  । बाजीराव मस्तानी के प्रेम की  गहराई अपरिमेय है ।  उनकी अमर  प्रेमगाथा युगों युगों तक लोगों के ह्रदय में वास करेगी ।

 साधनों के आभाव में बुन्देल नरेश वीर क्षत्रसाल प्रयाग के सूबेदार मुस्लिम  आक्रांता मुहम्मद खां वंगश  द्वारा पराजित हो जाते हैं । वंगश क्षत्रसाल को बंदी बना लेता है । इस बात की की सूचना जब मराठा वीर बाजीराव को मिलती है तो वह अपनी विशाल सेना लेकर क्षत्रशाल को वंगश  से मुक्त करवाने के लिए निकल पड़ते हैं ।

बाजीराव मुहम्मद खां वंगश  को पराजित कर क्षत्रसाल को मुक्त करा  देते हैं । क्षत्रसाल मुक्त होते ही बाजीराव को प्रेम से गले लगाते हैं ।

मस्तानी क्षत्रसाल के सम्राज्य की अभूतपूर्व सुन्दर नर्तकी थी । जिस समय क्षत्रसाल और बाजीराव आपस में बात कर रहे होते हैं तो मस्तानी बाजीराव के आकर्षक व्यक्तित्व से सम्मोहित होकर उसे निहार रही होती है । मस्तानी ने बाजीराव की वीरता के अनेकों प्रसंग  सुने हुए थे । बाजीराव को सामने देख मस्तानी अपने नयनों के उमड़ने  वाले प्रेम को छुपा न सकी | बाजीराव ने  भी मस्तानी को देखा  तो  देखता ही रह गया ,वह उसके  चित्ताकर्षक मोहिनी  सुरत में उलझ कर रह गया ।

रात्रि  में भोजन के पश्चात , छत्रसाल ने मस्तानी को नृत्य करने का आदेश दिया । मस्तानी ने ऐसा जीवंत नृत्य किया की बाजीराव मन्त्र  मुग्ध हो उठे   | मस्तानी का सौंदर्य और उसकी कला बाजीराव के दिल और दिमाग में   रच बस गई ।

छत्रसाल बाजीराव और मस्तानी के अंतरंग भावों को अच्छी तरह समझ चुके थे । उन्होंने विदाई के समय मस्तानी की जिम्मेदारी   प्रेमसहित बाजीराव को सौंप  दी  ।

बाजीराव मस्तानी को अपने राजमहल ले गए । दोनो एक दूसरे से बेइंतहा महोब्बत करते थे । लेकिन दोनों के इस प्रेम से राजपरिवार बेहद ख़फ़ा  था । राज़ - पुरोहितों ने शर्त रखी की रघुनाथराव का यज्ञोपवीत एवं सदाशिवराव का विवाह-संस्कार उस समय  तक नहीं होगा तब तक मस्तानी को महल से हटा नही दिया जाता है ।

राजपुरोहितों  के अत्यधिक विरोध को देखते हुए बाजीराव ने कुछ समय के लिए मस्तानी को महल से हटा दिया । बाजीराव को मस्तानी से  रूहानी प्रेम था लेकिन कर्त्तव्यों और राजहित के लिए उन्हें मज़बूरन अपनी खुशियों को तिलाँजलीदेनी पड़ी ।

निज़ाम का संकट पूना के ऊपर मंडरा रहा था । बाजीराव एक बड़ी सी सैना लेकर निज़ाम से टक्कर लेने के लिए पूना से कूच करने वाले थे । बाजीराव युद्धभूमि में जाने से पहले एक बार छदम भेष धर  कर मस्तानी से मिलाने पहुँच जाते हैं ।  मस्तानी अचानक उन्हें अपने सामने देख कर भावविभोर हो जाती है ।  मस्तानी आपने प्रेमाश्रु से बाजीराव की पोशाक  को धोती रह जाती है । मस्तानी अत्यंत कतार  होकर बाजीराव से उसे भी युद्धभूमि में ले जाने का अनुरोध  करती है । लेकिन बाजीराव अपने राज   कर्त्तव्यों  से बंधे होते हैं और मस्तानी को अपने साथ रणभूमि में ले जाने की अपनी असमर्थता ज़ाहिर करते हैं ।

मस्तानी का दिल टूट जाता है लेकिन बाजीराव के मान -सम्मान के लिए मस्तानी साथ जाने की जिद छोड़ देती है । मस्तानी बाजीराव को अपने पैरों की  पायल देती है और कहती है की अब वह नर्तकी नहीं रही इसलिए उन पायलों की उसके लिए कोई उपयोगिता नही है ।

बाजीराव  मस्तानी के निर्दोष प्रेम से आकंठ डूब जाते हैं । मस्तानी ने बिना किसी शर्त के उनसे प्रेम किया था और  अपने प्रेम के लिए वह    दुनिया की बड़े से बड़ी क़ुरबानी देने को भी  तैयार थी ।

बाजीराव मस्तानी के बाएं हाथ में अपने हीरे की अंगूठी पहना देते हैं और कहते हैं जब जब उनकी याद आएगी  तब तब उस अंगूठी को देखने से मस्तानी को उस अंगूठी  में बाजीराव दिखाई देंगें । इस तरह मीलों दूर रहते हुए भी बाजीराव मस्तानी की यादों में हमेशा बसे  रहेंगें । मस्तानी के रूहानी प्रेम को प्रतिपल याद रखने के लिए बाजीराव मस्तानी की पायल को अपने साथ ले कर रणभूमि की ओर अग्रसर होते हैं ।

रणक्षेत्र में पहुँचने से पहले ही बाजीराव को खबर मिलती है की मस्तानी को कैद कर लिया गया है । बाजीराव क्रोधित हो उठते  हैं । उन्होंने सोचा की युद्ध से पहले वापस जाकर  मस्तानी को आज़ाद करवाया जाए । लेकिन उंसके प्रेम के ऊपर राजकर्त्तव्य हावी हो जाता है | और बाजीराव मस्तानी के पायलों को अपने सीने  से लगा कर रणभूमि का रुख करते हैं ।

निज़ाम को एक घमासान  युद्ध में बाजीराव ने पराजित कर दिया  । युद्ध समाप्त हो जाता  है । बाजीराव  राजमहल लौट जाते हैं । प्रजा और राजपरिवार  के  विद्रोह के कारण  बाजीराव मस्तानी को कैद से आज़ाद  नहीं करवा पाते हैं । पायल जब भी बजती थी   तो बाजीराव को लगता था की  मस्तानी जोर जोर से  रो रही है और उन्हें धिक्कार रही है । मस्तानी की याद में बाजीराव दिन भर  खोये रहते थे  । उनका स्वास्थ्य दिन बा  दिन बिगड़ता जा रहता था । मस्तानी से बिछड़ने का ग़म  बाजीराव और अधिक सहन नहीं कर सके और इस निर्दयी दुनिया  से हमेशा के लिए रुखसत हो गए ।

जब मस्तानी को बाजीराव की मृत्यु की खबर मिली तो वह यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई । उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया और ऐसी ही विछिप्त मनोस्थिति में मस्तानी   बाजीराव द्वारा दी गई हीरे की अंगूठी को चाटकर अपने प्राण त्याग देती है । बाजीराव का नाम अपने होंठों पर लिए पगली  मस्तानी अपने जीवन के ताल और तान को समेटे हुए वहीँ  पहुंच गई जहां बाजीराव पहुँच चूका था ।

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Sunday, October 12, 2014

Dogs are the only animals proven to have a sixth sense

DID YOU KNOW?


Dogs are the only animals proven to have a sixth sense
Many owners believe that their dogs have sixth sense. This enables them to know, for example, when the family's children are approaching the house on their way home from school, or to tell when it is time to go for a walk. Dogs are also credited with telepathic abilities that enable them to pick up their owners' feeling. Scientific evidence suggests that dogs have an electromagnetic sense that makes them sensitive to earth tremors and vibrations. This may help them to predict earthquakes and find their way home across hundreds of miles. The dog is a hunter and differentiates a friend from a foe. Dogs only register tastes as pleasant, indifferent, or unpleasant. They possesses acute hearing to distinguish sounds over great distances. A dog's sense of smell is far beyond human comprehension with which it scents game, territory odors, and even emotional status of other animals.




Navigating Troubled Waters: India's Concerns Amidst the Red Sea Crisis

Introduction The Red Sea crisis has cast a shadow on India's trade landscape, prompting concerns from the Commerce Minister as disruptio...